अलीगढ़ जिले के खैर कस्बे के पास एक छोटा सा गाँव है भरतपुर । इसी गाँव में एक वृद्धा विधवा श्यामा रहती थी। उसके पास जमीन -जायदाद तो कुछ थी नहीं मेहनत मजदूरी करके अपना जीवन यापन कर रही थी । श्यामा की उम्र लगभग सत्तर वर्ष की होगी । श्यामा बड़ी ही मिलनसार स्वभाव की थी,इसी लिए गाँव के लोग प्राय उसके सुख- दुख में उसका ख्याल रखते थे । श्यामा भी गाँव के लोगों की सहायता करती रहती । उम्र अधिक होने के कारण अब उससे ज्यादा काम तो होता नहीं था किन्तु उससे जितना हो सकता था वह जरूर करती थी किसी को ना नहीं कहती थी । उसके पास रहने के लिए एक छोटा सा मकान था । आज-कल इस मकान में श्यामा अपने अतीत की स्मृतियों को याद करके रो लेती है। यह घर भी बच्चों की किलकारियों ,शोर गुल से गूँजा करता था किन्तु आज श्यामा बिलकुल अकेली है। श्यामा के दो बच्चे थे एक लड़की और एक लड़का । बच्चे बड़े हो गए दोनो का ब्याह गोना कर दिया । बच्चे अपने संसार में सुखी से जीवन जी रहे हैं। श्यामा ने बच्चों को ईश्वर से बार-बार मिन्नते करके न जाने कितने व्रत -उपवास रखकर पाया था । पहली संतान बेटी थी उसके बाद बेटे को पाया था । बेटा तो उसके दिल का टुकड़ा था ,आँखों का तारा था । माँ-बाप ने मेहनत मजदूरी करके बेटे को पढ़ाया लिखाया और इस काबिल बनाया कि समाज में इज्जत से सिर उठाकर जी रहा है। बेटी का विवाह अच्छे खाते -पीते घर में कर दिया । बेटे का भी विवाह हो गया बहु कुछ दिन तो गाँव में सास -ससुर के पास रही फिर वह भी अपने पति के साथ जा शहर में रहने लगी । एक बार जो वह शहर गई उसने फिर कभी भी गाँव आने का नाम नहीं लिया। वह अपनी शहरी दुनिया में खुश थी। श्यामा का बेटा हरीश दिल्ली में किसी सरकारी कम्पनी में काम करता है ।
श्यामा के पति का स्वर्गवास हुए दस -पंद्रह वर्ष गुजर चुके हैं । पति के गुजर जाने के पश्चात से ही वह संसार में बुल्कुल अकेली हो गई है । बेटा - बहु, नाती -पोते सब तो ईश्वर ने दिए, किन्तु आज उसके पास कोई भी नहीं कि कम से कम एक गिलास पानी तो उसे दे सके। पिता की मृत्यु के बाद कुछ सालों तक तो हरीश बराबर माँ की राजी -खुशी पूछता रहता था और कभी - कभी गाँव भी आ जाता था । लेकिन धीरे -धीरे उसका माँ के प्रति ध्यान कम होने लगा । उसे इतनी फुरसत नही कि अपनी बूढ़ी माँ का हाल मालुम कर सके , न ही उसके घर में इस बेचारी बुढ़िया के लिए कोई जगह है जहाँ वह रह सके । जिस बेटे के भविष्य को बनाने के लिए माँ-बाप ने अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया था आज उसी बेटे के पास अपनी बूढ़ी माँ को रखने के लिए जगह तक नही । जब बच्चों को शहरी सभ्यता का स्वाद लग जाता है तो उन्हें गाँव की सभ्यता से घिन आने लगती है , गाँव की सभ्यता से ही नहीं बल्कि गाँव के लोगों से भी उन्हें घृणा होने लगती है । वे लोग यह भूल जाते हैं कि उसी गाँव की मिट्टी में उनका बचपन बीता, उसी गाँव की गलियों में खेल-कूदकर बड़े हुए थे , पर आज उन्हें गाँव अच्छे नहीं लगते । यहाँ तक कि उन्हें गाँव के लोग अछूत से प्रतीत होने लगते हैं। ऐसा ही कुछ श्यामा के साथ हुआ । श्यामा का बेटा दिल्ली में ऐशोआराम की ज़िन्दगी बिता रहा है। वह माँ को अपने साथ नहीं रखना चाहता क्योकि माँ को शहरी सभ्याता का ज्ञान नहीं है । उसके घर बड़े -बड़े लोगों का आना जाना लगा रहता है । वे लोग श्यामा को देखेंगे तो क्या कहेंगे यही सोचकर हरीश अपनी माँ को अपने साथ नहीं रखना चाहता । सरकारी नौकरी है कमाई भी अच्छी खासी है इसीलिए तो दिल्ली में दो-दो मकान बनाकर खड़े कर लिए हैं । मकान तो उसने दो बना लिए किन्तु उन मकानों में माँ के रहने के लिए एक भी कमरा नही है ।
पति के गुजर जाने के पश्चात श्यामा अपने बेटे के भरोसे बैठी थी कि पति तो छोड़ गया लेकिन बेटा , नाती -पोतों के साथ रहकर बाकी का जीवन काट लेगी। लेकिन बेचारी को क्या पता था कि वह जो सोच रही है वह केवल उसकी सोच ही बनकर रह जाएगी । श्यामा को पति के जीवन की कठिन डगर पर साथ छोड़ जाने का जितना दुख था उससे कहीं ज्यादा इस बात का दुख था कि जिस बेटे को श्यामा अपनी जान से भी ज्यादा चाहती थी जिसकी एक खुशी के लिए वह कुछ भी कर गुजर जाती थी । आज उसी बेटे के परिवार ने उसकी तरफ से मुँह फेर लिया । उसे अपने साथ नहीं रखना चाहता। सही तो है क्यों रखे वह उसे अपने पास? क्या है ऐसा उस बेचारी के पास ? यदि आज श्यामा के पास धन दौलत होती तो यही बेटा श्यामा के आगे पीछे घूमता फिरता । सारा परिवार धन पाने के लालच में कम से कम कुछ देखभाल तो करता। लेकिन बेचारी के पास जो कुछ था सब तो बच्चों के ब्याह गोने में ही खर्च कर दिए और बचा कुचा बेटे की पढ़ाई-लिखाई मे खर्च हो गया। थोड़ी बहुत जमा पूँजी थी वह भी बेटे -बेटियों पर ही खर्च कर दी । घर में जो कमाने वाला था वह भी चल बसा । उसके पास छोटे से मकान के अलावा कुछ नहीं है । ईश्वर की इतनी तो कृपा रही कि उसके पास सिर छिपाने के लिए अपनी छत्त तो है नही तो पता नहीं बेचारी कहाँ मारी-मारी फिरती । मेंहनत मजदूरी करके अपना पेट भर लेती है। इतना सब कुछ होने पर भी वह दिन -रात अपने लाल की सलामती की दुआएँ करती रहती है, और मन में आस लगाए बैठी है कि एक न एक दिन बेटा उसे लेने ज़रूर आएगा । कभी न कभी उसे अपनी इस बूढ़ी माँ की याद आएगी ।
एक दिन श्यामा और उसकी पड़ौसिन कमला घर पर बैठी बातें कर रहीं थीं। दोनों बूढ़ियाँ अपने दुख दर्द एक दूसरे से कह सुन रही थी । उसी चर्चा में श्यामा के बेटे की चर्चा होने लगी। कमला ने श्यामा से कहा - “चों री श्यामा तू दिन रात हरीश के लइयाँ भगमान ते प्रार्थना करती रेह , कहा जरुरत है तोए वाके लईयाँ गी सब करने की। जब वा बेसरमे ई थोड़ी बोहत सरम नाए ,तो तू चौं दिन -रात कुढ़ती रेह । वाय तो इतनी भी फुरसत नाए कि अपनी बुढ़िया माँ की राजी खुशी पूछ सके । माँ कैसी होगी का हाल में होगी , कम ते कम वाकी राजी खुशी तो पूछ लऊँ। और तू बावरी वई के लईयाँ दिन-रात मरती रेह ,अरी ! कोई बात ना ऊ ना देखभाल करेगो तो का तू जीवेगी ना । वईने तू इसनी बड़ी ना कर दी । ईश्वर तो है गु हमारी देखभाल करेगो। तू काए लइयाँ दिन रात धुजती रेह । खश रेह कर देखियो का हाल कर राखोए तेने । अरी गिई हाल रहयो तो तू जादा दिन ना जिएगी।”
पड़ौसिन कमला की बातें सुनकर श्यामा मुस्कराते हुए बोली –“ क्या करु जीजी माँ जो हूँ । तुम तो जानती ही हो कि कितनी मिन्नतों के बाद इसे पाया था , इससे पहले तीन छोरा हो-हो कर गुजर गए तब जाके गि पायोए। अब गि नालायक हो चाहे लायक आखिर है तो मेरो ही खून । चिंता चों ना करु ? आखिर माँ जो हूँ । काश रामजी माँओं को पत्थर का दिल देता तो इतनी पीड़ा न होती । जीजी किस्मत के लेखेए कोई ना टाल सके जब मेरी किस्मत में बहु -बेटे का सुख ही ना लिखो तो भला कोई कहा कर सके । सुख-दुख सब अपने-अपने भागन ते ही मिलै । जब राम जी मेरी किस्मत लिख रहै होगो ना तो वाने मेरी किस्मत में बहु बेटे का सुख ही ना लिखो होगो।”
पड़ौसिन कमला की बातें सुनकर श्यामा मुस्कराते हुए बोली –“ क्या करु जीजी माँ जो हूँ । तुम तो जानती ही हो कि कितनी मिन्नतों के बाद इसे पाया था , इससे पहले तीन छोरा हो-हो कर गुजर गए तब जाके गि पायोए। अब गि नालायक हो चाहे लायक आखिर है तो मेरो ही खून । चिंता चों ना करु ? आखिर माँ जो हूँ । काश रामजी माँओं को पत्थर का दिल देता तो इतनी पीड़ा न होती । जीजी किस्मत के लेखेए कोई ना टाल सके जब मेरी किस्मत में बहु -बेटे का सुख ही ना लिखो तो भला कोई कहा कर सके । सुख-दुख सब अपने-अपने भागन ते ही मिलै । जब राम जी मेरी किस्मत लिख रहै होगो ना तो वाने मेरी किस्मत में बहु बेटे का सुख ही ना लिखो होगो।”
श्यामा अपने दुख से इतनी दुखी नहीं थी जितना कि बेटे - बहु की उपेक्षा से । वह दिन रात अपने बेटे और बेटे के बच्चों के आने का इंतज़ार करती । दिन पर दिन बीतते जा रहे थे समय के साथ -साथ श्यामा भी कमजोर होती जा रही थी । अब तो उससे ठीक से चला भी नहीं जाता था लकड़ी का सहारा लेकर चलती थी । दिखाई भी बराबर नहीं देता था। यह गाँव भी ऐसा कि जिसमें पीने का पानी तक नहीं । गाँव के लोग पीने के लिए पानी गाँव के बाहर कोसो दूर के कुएँ से लाते थे , बेचारी औरते घड़े पर घड़े रखकर पानी भरकर लाती थी । श्यामा भी अपनी छोटी सी दो मटकियों को लेकर पानी भरने जाती थी । अब जीना है तो कुछ न कुछ करना ही पड़ेगा । कभी -कभी किसी बहु बेटी को श्यामा पर तरस आ जाता तो वे ही श्यामा के लिए पानी भर लाती, नहीं तो उसे ही गिरते पड़ते पानी भरकर लाना पड़ता था। कभी -कभी श्यामा की बेटी उसकी देखभाल करने के लिए आ जाती । वह घर का काम कर देती थी । लेकिन बेटी भी कितने दिन अपना घर परिवार छोड़कर उसके पास रह सकती थी । जब बेटी और उसके बच्चे आ जाते तो श्यामा का दिल लग जाता था ।
श्यामा की बेटी ने कई बार उसे अपने साथ चलने का आग्रह किया किन्तु वह उसके साथ नहीं गई । उसका मानना है कि हम तो बेटियों के घर का पानी तक नहीं पीते फिर उसके साथ उसकी ससुराल में जाकर रहूँ । यह कैसे हो सकता है? एक दिन बेटी ने श्यामा से कहा कि “माँ अबकी बार तू मेरे संग चलिओ यहाँ तू अकेली पड़ी रहती है किसी दिन मर -मरा गई तो ….. ?” यह सुनकर सुनकर श्यामा कह देती कि “बेटी मैं इतनी जल्दी मरनेवाली नहीं हूँ । मैं तो अपने नाती -पोतों का ब्याह करके ही मरुँगी, नाए तो तू देख लियों।” यह कहकर श्यामा बात को टाल देती फिर बेटी भी उससे ज्यादा बहस नहीं करती कि जब माँ का ही मन नहीं है तो फिर वह क्या कर सकती है। जैसे-जैसे बेटी के वापस जाने का समय आता जाता श्यामा का दिल घबराने लगता किन्तु यह बात अपनी बेटी को नहीं बताती यदि बेटी को बताएगी तो बेटी उसे अपने साथ चलने के लिए कहेगी जो वह कर नहीं सकती । इस तरह देखते-देखते बेटी के जाने का दिन भी आ जाता जिस दिन बेटी को अपने घर (अपनी ससुराल ) जाना होता । श्यामा अपनी बेटी और बच्चों को विदा करके घर में बैठकर खूब फफक-फफककर रोती । उस दिन उसके घर में चूल्हा नहीं जलता सुबह बेटी जो बनाकर रख गई थी उसी में से एक -दो रोटी खा लेती , रोटी खाती जाती और बच्चों को याद कर रोती जाती।
एक दिन की बात जब श्यामा पीने के लिए पानी भरने गाँव के बाहर बने कुएँ पर गई थी । कूएँ से पानी निकालकर उसने अपनी दोनो मटकियाँ भर ली थी , कुएँ से पानी खींचने के कारण उसकी साँसे फूल रही थी । पानी भरने के पश्चात वह कुएँ के मंडल पर विश्राम करने के लिए बैठ गई । उसने देखा कि एक लड़का भागता हुआ उस कुएँ की तरफ ही आ रहा है । जब लड़का उसके पास आ गया तो उसने उसके भागकर आने का कारण पूछा । लड़के ने बताया कि उसका ( श्यामा का ) बेटा आया है । वह घर पर बैठा उसका इंतजार कर रहा है । यह सुनकर पहले तो श्यामा को अपने कानो पर विश्वास ही नहीं हुआ कि लड़का जो कह रहा है क्या वह सही है ? उसने लड़के से कहा कि कही वह उसके साथ हँसी -मजाक तो नहीं कर रहा । किन्तु लड़के ने बताया कि वह मजाक नहीं कर रहा उसने जो कुछ कहा है वह सब सच है। यह सुनकर श्यामा तेज गति से घर की ओर लपकी , आज उसे चलने में कोई कठिनाई नहीं हो रही । कहाँ तो लकड़ी का सहारा लेकर धीरे-धीरे चलती है किन्तु बेटे के आने की खबर ने जैसे उसे नयी ताकत प्रदान कर दी हो । वह घर पहुँची तो बेटे को घर पर बैठे देखकर अपने आँसुओं को न रोक सकी और बेटे से लिपटकर फफक -फफककर रोने लगी। रोती जाती और कहती जाती –“चों रे भइया तू तो मोई कतई भूल गयो ।” श्यामा के घर पर और भी लोग इकट्ठे हो चुके थे । यह नजारा देखकर वहाँ पर खड़ी औरतों की आँखों में भी आँसू भर आए। कई औरतों ने हरीश को खूब खरी-खोटी सुनाई – “चो रे भईया तू तो बड़ो निरमोही हैगो - लुगाई के आगे अपनी माँ ए ही भूल गयो । देखियो बिचारी कैसी सूखके कांटो है गई है।” हरीश चुपचाप बैठा सारी बातें सुनता रहा । उसे पता है कि सारी औरतें जो कह रही है वह सब सही है किन्तु उसके पास उन सब की बातों का जवाब देने के लिए शब्द ही नहीं थे ।
माँ ने हरीश की राजी -खुशी पूछकर बच्चों का हाल -चाल पूछा सब की कुशलता की खबर पाकर वह बहुत प्रशन्न हुई। राजी-खुशी के बाद वह हरीश के लिए खाना बनाने लग गई , हरीश ने खाना खाया और आराम करने लगा । आराम करने के पश्चात उसने माँ से कहा कि - “माँ अब तू मेरे संग दिल्ली चल वहीं बच्चों के संग रहियो ।” यह सुनकर श्यामा को एक बार तो लगा कि जैसे आज ईश्वर ने उसकी प्रार्थना सुन ली हो । किन्तु उसने हरीश का मन टटोलने के लिए कह दिया कि – “अरे भईया मैं तो यही पे ठीक हूँ ।” वह देखना चाहती थी कि हरीश सचमुच उसे अपने साथ ले जाना भी चाहता है या नहीं? किन्तु हरीश ने साफ कह दिया कि “माँ अब तू यहाँ नहीं रहेगी मेरे साथ चलेगी ।”
एक दिन की बात जब श्यामा पीने के लिए पानी भरने गाँव के बाहर बने कुएँ पर गई थी । कूएँ से पानी निकालकर उसने अपनी दोनो मटकियाँ भर ली थी , कुएँ से पानी खींचने के कारण उसकी साँसे फूल रही थी । पानी भरने के पश्चात वह कुएँ के मंडल पर विश्राम करने के लिए बैठ गई । उसने देखा कि एक लड़का भागता हुआ उस कुएँ की तरफ ही आ रहा है । जब लड़का उसके पास आ गया तो उसने उसके भागकर आने का कारण पूछा । लड़के ने बताया कि उसका ( श्यामा का ) बेटा आया है । वह घर पर बैठा उसका इंतजार कर रहा है । यह सुनकर पहले तो श्यामा को अपने कानो पर विश्वास ही नहीं हुआ कि लड़का जो कह रहा है क्या वह सही है ? उसने लड़के से कहा कि कही वह उसके साथ हँसी -मजाक तो नहीं कर रहा । किन्तु लड़के ने बताया कि वह मजाक नहीं कर रहा उसने जो कुछ कहा है वह सब सच है। यह सुनकर श्यामा तेज गति से घर की ओर लपकी , आज उसे चलने में कोई कठिनाई नहीं हो रही । कहाँ तो लकड़ी का सहारा लेकर धीरे-धीरे चलती है किन्तु बेटे के आने की खबर ने जैसे उसे नयी ताकत प्रदान कर दी हो । वह घर पहुँची तो बेटे को घर पर बैठे देखकर अपने आँसुओं को न रोक सकी और बेटे से लिपटकर फफक -फफककर रोने लगी। रोती जाती और कहती जाती –“चों रे भइया तू तो मोई कतई भूल गयो ।” श्यामा के घर पर और भी लोग इकट्ठे हो चुके थे । यह नजारा देखकर वहाँ पर खड़ी औरतों की आँखों में भी आँसू भर आए। कई औरतों ने हरीश को खूब खरी-खोटी सुनाई – “चो रे भईया तू तो बड़ो निरमोही हैगो - लुगाई के आगे अपनी माँ ए ही भूल गयो । देखियो बिचारी कैसी सूखके कांटो है गई है।” हरीश चुपचाप बैठा सारी बातें सुनता रहा । उसे पता है कि सारी औरतें जो कह रही है वह सब सही है किन्तु उसके पास उन सब की बातों का जवाब देने के लिए शब्द ही नहीं थे ।
माँ ने हरीश की राजी -खुशी पूछकर बच्चों का हाल -चाल पूछा सब की कुशलता की खबर पाकर वह बहुत प्रशन्न हुई। राजी-खुशी के बाद वह हरीश के लिए खाना बनाने लग गई , हरीश ने खाना खाया और आराम करने लगा । आराम करने के पश्चात उसने माँ से कहा कि - “माँ अब तू मेरे संग दिल्ली चल वहीं बच्चों के संग रहियो ।” यह सुनकर श्यामा को एक बार तो लगा कि जैसे आज ईश्वर ने उसकी प्रार्थना सुन ली हो । किन्तु उसने हरीश का मन टटोलने के लिए कह दिया कि – “अरे भईया मैं तो यही पे ठीक हूँ ।” वह देखना चाहती थी कि हरीश सचमुच उसे अपने साथ ले जाना भी चाहता है या नहीं? किन्तु हरीश ने साफ कह दिया कि “माँ अब तू यहाँ नहीं रहेगी मेरे साथ चलेगी ।”
अगले ही दिन श्यामा हीरीश के साथ दिल्ली आ गई । वहाँ आकर वह बहुत खुश थी। वर्षों बाद उसने अपने पोते -पोतियों को देखा था । यहाँ आकर कुछ समय तो उसका ठीक ठाक कट गया किन्तु उसकी खुशी ज्यादा समय तक न टिक सकी । कुछ समय बाद हरीश ने श्यामा को छत पर बने एक कमरे मे रहने के लिए कह दिया । वह बेचारी उस कमरे में जा रहने लगी ,दिन -रात अकेली उस कमरे में पड़ी रहती न कोई बोलनेवाल, न कोई उसका हालचाल जाननेवाला । उसे वह कमरा जेल जैसा प्रतीत होने लगा । सुबह शाम नौकर आकर खाना दे जाता जो कुछ रुखा सूखा दे जाता वह खा लेती । खाना खा लेती और छत पर ही इधर -उधर टहल लेती । एक दिन श्यामा के मन में हरीश से मिलने की इच्छा हुई तो वह छत से नीचे जाने के लिए जैसे ही सीढ़ियो से उतरने लगी कि उसका पैर फिसल गया और वह बेचारी सीढ़ियों से नीचे जा गिरी । सीढ़ियों से गिरने के कारण उसके पैरों और कमर में गहरी चोट आई थी । कमर में चोट लगने के कारण वह सीधे बैठ भी नहीं सकती थी । हरीश ने माँ का थोड़ा बहुत इलाज करवाया और फिर उसे उसके हाल पर छोड़ दिया । बहु को सास से कोई लेना देना नहीं था । सास जिए या मरे उसकी बला से । वह तो श्यामा का हाल-चाल पूछने के लिए छत तक भी नही जाती थी । यहाँ तक कि बच्चों को भी फुरसत नहीं थी कि वे तो अपनी दादी का हाल चाल पूछ सकें । अब श्यामा की दुनिया सिर्फ और सिर्फ उस कमरे तक ही सिमट कर रह गई थी । बहु ने तो उससे मिलने पर ही पाबंदी लगा दी थी । कोई भी उसके पास आता -जाता नहीं ।
बेचारी श्यामा उस कमरे में अकेली पड़ी -पड़ी घुट-घुट कर दम तोड़ रही थी , अपने दर्द से कराह रही थी किन्तु उसके दर्द को सुनने वाला वहाँ कोई नहीं था । दिन-प्रतिदिन वह मौत की प्रतीक्षा कर रही थी कि कब उसे मौत आए और वह इस पीड़ा भरी ज़िन्दगी से मुक्ति पाए । उसके दुख दर्द को देखकर शायद मौत ने भी उसकी तरफ से मुँह फेर लिया था । इधर हरीश से जो कोई भी उसकी माँ के स्वास्थ्य के बारे में पूछता वह सब से कह देता कि माँ का स्वास्थ्य अब काफी ठीक है और वह ऊपरवाले कमरे में आराम कर रही है। वाह रे! माँ के लाल खूब कर्ज चुकाया माँ के दूध का । दिन -प्रतिदिन मौत की प्रतीक्षा करती हुई श्यामा के लिए आखिर वह दिन आ ही गया जिस दिन उसे इस मतलबी संसार से छुटकारा और अपने दुखी जीवन से मुक्ति मिल ही गयी । बेचारी मरते समय भी शायद अपने बेटे के आने ,उसे अंतिम बार देखने की चाह में उसकी फोटों को देखते -देखते इस लोक को छोड़ गई लेकिन बेटे को………? यह सब क्या पता । भरे पूरे परिवार के होते हुए भी बेचारी के अंतिम समय में कोई मुँह में गंगाजल की एक बूँद तक डालने वाला नही था । हाय रे! ज़िदगी । घरवालों को तो पता ही नहीं कि माँ कब चल बसी वह तो घर का नौकर रोजाना की तरह खाना खिलाने के लिए आया तो पता चला कि माता जी नही रहीं ।
आज जब श्यामा जीवित नहीं है तब दुनिया को दिखाने के लिए हरीश माँ की बड़ी सी तस्वीर पर फूलों की माला चढ़ा कर उसकी पूजा करता है। जब वह जीवित थी तब तो उसके पास समय नहीं था कि अपनी माँ का हाल चाल पूछ सके , आज जब वह जीवित नहीं है तब उसकी तस्वीर के आगे फूलमाला, धूप, अगरबत्ती जलाई जाती है । वाह रे ! माँ के लाल धन्य है तुम्हारी मात्र भक्ति...............।